गाँधी जी ने अपने जीवन को यदि सत्य की प्रयोगशाला कहा और यदि अपने जीवन को ही अपना संदेश कहा, तो इसमें कथनी-करनी में भेद न था। जो कहा, वह जीकर दिखाया। जीवन में उठनेवाला उनका हर कदम उस सत्याग्रही का कदम था जो सत्य की राह चलते हुए निरंतर अपने भीतर के विकारों से मुक्ति पाने का संघर्ष करता रहा। गाँधी जी के आदर्शों पर चलने का संकल्प लेना और उसे व्यापक राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में देखने का प्रयास करना अच्छी पहल हो सकता है, अगर वह नैतिक कर्म में शामिल हो। स्वच्छता का बाहरी रूप जितना आवश्यक है उससे अधिक भीतरी रूप में उसको अंगीकार करने की जरूरत है क्योंकि लोभ, कट्टरता, कामावेग, क्रोध, पशुता, प्रभुताबोध और सांसारिक शुद्रताओं ने हमें मनुष्य रहने ही नहीं दिया है। हम अपने आचरण से आए दिन पूरी मनुष्यता को शर्मसार करते रहते हैं और अपने महान् देश के नाम को कलंकित करते हैं।
गाँधी जी को याद करना एक बात है और उनके बताए रास्तों पर चलना, बिल्कुल दूसरी बात। उनकी स्वच्छता का आदर्श उनके सत्य के सन्धान का एक मार्ग है जिसमें अहिंसा भी है तो ब्रह्मचर्य भी, अपरिग्रह भी है तो अस्तेय भी, जीविकार्य श्रम भी है तो रसना निग्रह भी। शब्द और कर्म की एकता को अपनाकर अपने अन्तर के विकारों से मुक्त होकर और सब प्रकार से स्वयं को तुच्छ मानते हुए अपने को नैतिक बनाकर ही इस मार्ग पर चला जा सकता है, अन्यथा नहीं। स्वच्छता को उसके समग्र रूप में ग्रहण करना ही सही मायनों में गाँधी को मन से याद करना है और स्वयं अपने देश से प्रेम करना भी; पर प्रश्न यह है कि क्या हम इसके लिए तैयार है?